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किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के विकास में बैंकिंग उद्योग और वित्तीय संस्थान का एक महत्वपूर्ण स्थान होता हैं और ऐसा कहा जा सकता है कि देश के इन दोनों क्षत्रो का विकास यह दर्शाता है कि इस देश की अर्थव्यवस्था कितनी विकसित है क्योंकि अर्थव्यवस्था के इन दो वर्गों का विकास देश के विकास पर अविश्वसनीय तरीके से प्रभावित करता है। अगर हम “डिजिटल इंडिया” की आज की स्थिति तक पहुंचने के लिए भारत में बैंकिंग प्रणाली के विकास के बारे में बात करते हैं, तो हमें भारतीय बैंकिंग प्रणाली के विकास के विभिन्न चरणों को जानना होगा। इस ब्लॉग में हम बैंकिंग प्रणाली के विभिन्न चरणों के बारे में चर्चा करने जा रहे हैं। यह ब्लॉग छात्रों, बैंकिंग पेशेवरों या भारतीय बैंकिंग प्रणाली के विकास के चरणों को जानने के इच्छुक लोगों के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण है, इसलिए ब्लॉग से जुड़े रहें।
भारत में बैंकिंग संरचना की उभरती प्रवृत्ति
“डिजिटल इंडिया” के आज के भारत को वहाँ तक पहुँचने के लिए बहुत जटिल और क्रन्तिकारी परिस्थितिओ और नीति निर्देशों से गुजरना पड़ा है जिस कारण भारत में बैंकिंग और वित्तीय सेवाओं का व्यापक विकास हुआ है और इन क्षेत्रों में विकास निरंतर जारी है। इस परिवर्तन को नई नियामक नीतियों और ग्राहकों की अपेक्षाओं और परिस्थितिओ को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। हालाँकि ऐसा भी कहा जा सकता है कि भारत की बैंकिंग और वित्तीय सेवा के विकास के लिए तकनीकी प्रगति ने सबसे अधिक प्रभावित किया है।
अगर हम किसी भी प्रणाली का पता लगाना चाहते हैं तो हमे प्रणाली के इतिहास को जानना हमेशा बेहतर होता है। तो आइए जानते हैं भारत में बैंकिंग प्रणाली का इतिहास।
भारत में बैंकिंग का इतिहास
व्यवस्थित और मजबूत बैंकिंग प्रणाली देश की एक मजबूत और विकसित अर्थव्यवस्था बनाने में मदद करती है। यदि हम ऐसा कहें कि बैंकिंग प्रणाली देश के आर्थिक विकास का आधार बनती है, तो यह अतिशोक्ति नहीं होगा। किसी भी देश की बैंकिंग प्रणाली में परिवर्तन उपभोक्ता की हाल की वित्तीय आवश्यकता और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को संतुलित करने पर निर्भर करता है। इस दिशा में पिछले कुछ वर्षों में भारत में बैंकिंग प्रणाली और प्रबंधन में कुछ बड़े बदलाव भी हुए हैं। आइए हम भारत में बैंकिंग प्रणाली के विकास के इतिहास को देखें।
हमने पाया कि भारत में बैंकिंग प्रणाली का इतिहास बहुत पुराना है। भारत की बैंकिंग प्रणाली 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिलने से पहले की तारीखों में स्थापित की गई थी। इस लेख में, हम भारत में बैंकिंग क्षेत्र के विकास के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे।
भारत में बैंकिंग प्रणाली का चरणबद्ध विकास
भारत में बैंकिंग प्रणाली के चरणबद्ध विकास को समझने के लिए हमें देश में बैंकिंग प्रणाली के इतिहास को देखना होगा। भारत में बैंकिंग प्रणाली के विकास को बेहतर ढंग से समझने के लिए हमें पूरे परिदृश्य को चार श्रेणियों में विभाजित करना होगा।
01) प्रारंभिक चरण (पूर्व-स्वतंत्रता का चरण 1947 तक)
02) पूर्व राष्ट्रीयकरण चरण (1947 – 1969) 03) राष्ट्रीयकरण के बाद का चरण (1969 -1991)
04) उदारीकरण का चरण (1991 – 2017) 05) वर्ष 2017 से आज तक का चरण
भारत में बैंकिंग प्रणाली का इतिहास एक बहुत बड़ा विषय है। हम भारत में बैंकिंग प्रणाली के विकास की दिशा में हर पहलू का पता लगाने के लिए इस महत्वपूर्ण विषय पर एक अलग ब्लॉग में चर्चा करेंगे। अगर मैं यहां इस ब्लॉग में चर्चा करता हूं तो यह वर्तमान विषय “भारत में बैंकिंग प्रणाली की उभरती प्रवृत्ति” को जटिल बना देगा।
वर्तमान विषय को समझने के लिए हमें भारत में बैंकिंग प्रणाली के इतिहास के बारे में थोड़ी चर्चा तो ही करनी होगी।
प्रारंभिक चरण (पूर्व-स्वतंत्रता का चरण 1947 तक)
भारत में बैंकिंग प्रणाली के लिए सबसे प्रारंभिक चरण वर्ष 1700 से वर्ष 1949 तक का माना जा सकता है। इस प्रारंभिक चरण में भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का आगमन हो चुका था और विभिन्न राज्यों में मुद्रा को वित्तीय लेनदेन के लिए सुचारू रूप से चलाने का प्रयास चल रहा था। ऐसा देखा जाता है कि इस प्रारंभिक चरण में लगभग दो हजार से भी अधिक निजी स्वामित्व वाले बैंक खोले गए लेकिन वह अधिक समय तक नहीं चल पाये क्योकि ये बैंक छोटी वित्तीय गतिविधियों पर बनाए गए थे। जिनका स्वामित्व निजी मालिकों या निजी संस्थाओं के समूह के पास था। जिनका उद्देश्य अधिकतम लाभ अर्जित करना था। सभी बैंक अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए अपने-अपने अलग नियम बनाते थे और अप्रत्याशित रूप से बैंकों ने अपने दरवाजे बंद करके भाग जाते थे अर्थात इस चरण में खोले गए अधिकतम बैंक लंबे समय तक जीवित नहीं रहे।
भारत में खोला गया पहला बैंक “बैंक ऑफ हिंदुस्तान” था, जिसे वर्ष 1770 में स्थापित किया गया था और तत्कालीन भारतीय राजधानी कलकत्ता में स्थित था। हालाँकि यह बैंक काम करने में विफल रहा और वर्ष 1832 में अपना परिचालन बंद कर दिया। भारत में स्वतंत्रता पूर्व अवधि के दौरान देश में लगभग छे सौ से अधिक निजी बैंक पंजीकृत किए गए थे लेकिन इन बैंकों में केवल कुछ बैंक ही जीवित रहने में कामयाब रहे।
“इंपिरियल बैंक ऑफ इंडिया” की स्थापना
वर्ष 1858 के बाद जब भारत के शासन की शक्ति को ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश ताज में स्थानांतरित कर दिया गया था तब ब्रिटिश सरकार ने इन निजी बैंकों के उत्पीड़न पर नियंत्रण करने की कोशिश की और सुचारू वित्तीय गतिविधियों के लिए कई नियम बनाए लेकिन वे सफल नहीं हो सके। इस दिशा में ब्रिटिश सरकार ने अपने अधिकार क्षेत्र के तीन बड़े बैंकों का विलय कर दिया और एक केंद्रीय बैंक की स्थापना की जिसका नाम “इंपिरियल बैंक ऑफ इंडिया” रखा गया।
लेकिन इन बैंकों में निजी हिस्सेदारी के कारण ब्रिटिश सरकार अपने सपनों का केंद्रीय बैंक स्थापित करने में सफल नहीं हो सकी। आगे ब्रिटिश सरकार को एक केंद्रीय बैंक की तलाश थी। जिस केंद्रीय बैंक पर सरकार का पुराना अधिकार हो और सरकार देश की वित्तीय प्रबंधन को सुकारू रूप से चला सके और देश में मुद्रा के प्रचालन पर पूर्ण अधिकार स्थापित कर सके। इस उद्देश्य के लिए भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना की गई।
भारतीय रिजर्व बैंक
बेहतर रूप से किसी घटना को समझने से पहले हमें उस घटना के इतिहास को जानना हमेशा अच्छा होता है। जिस उद्देश्य के लिए ब्रिटिश सरकार ने औपनिवेशिक देश “भारत” में केंद्रीय बैंक के रूप में इंपिरियल बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना की थी लेकिन ब्रिटिश प्रशासक ने महसूस होने लगा था कि प्रथम विश्व युद्ध के बाद आर्थिक परेशानियों का जवाब देने के लिए केंद्रीय बैंक में शेयर पूंजी में निजी मालिकों के बड़े हिस्से के कारण केंद्रीय बैंक उनकी अपेक्षाओं के अनुसार कर्तव्यों का पालन करने में सक्षम नहीं था।
सर्वप्रथम डॉ भीमराव अंबेडकर ने देश के लिए एक केंद्रीय बैंक बनाने की अवधारणा अपनी पुस्तक “द प्रॉब्लम ऑफ द रुपी – इट्स ओरिजिन एंड इट्स सॉल्यूशन” (The Problem of the Rupee – Its Origin and Its Solution) में दिया था। इसी अवधारणा को आधार बनाकर वर्ष 1926 सर एडवर्ड हिल्टन यंग की अध्यक्षता में एक कमीशन की स्थापना की गई। जिसे रॉयल कमीशन के रूप में भी जाना जाता है। रॉयल कमीशन ने भी उसी पुस्तक, द प्रॉब्लम ऑफ द रुपी – इट्स ओरिजिन एंड इट्स सॉल्यूशन के आधार पर प्रस्तुत दिशानिर्देशों के अनुसार पर अपनी रिपोर्ट पेश की और 1926 में, हिल्टन यंग कमीशन ने भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना की सिफारिश की। भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना 1934 के भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम के बाद की गई थी। हालांकि शुरू में भारतीय रिजर्व बैंक में निजी स्वामित्व था लेकिन 1949 में इसका राष्ट्रीयकरण किया गया था और तब से पूरी तरह से भारतीय रिजर्व बैंक भारत सरकार, वित्त मंत्रालय के स्वामित्व में है।
भारतीय रिजर्व बैंक के विकास के विभिन्न चरण
वर्ष | विभिन्न चरण |
1926 | भारतीय मुद्रा पर रॉयल कमीशन (हिल्टन यंग कमीशन) एक केंद्रीय बैंक की स्थापना की सिफारिश करता है जिसे ‘भारतीय रिजर्व बैंक’ कहा जाता है। |
1931 | भारतीय केंद्रीय बैंकिंग जांच समिति भारतीय रिजर्व बैंक को भारत के लिए केंद्रीय बैंक के रूप में स्थापित करने के मुद्दे को पुनर्जीवित करती है। |
5 मार्च 1934 | भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934, (1934 का II) वैधानिक आधार बनाता है जिस पर बैंक की स्थापना होती है। |
इस प्रकार से भारत में बैंकिंग विकास के प्राथमिक चरण का अंत होता है और भारत में बैंकिंग विकास के दूसरे चरण की शुरुआत होती है
स्वतंत्रता के बाद का चरण 1947 से आज तक लगातार चल रहा है, लेकिन वर्ष 1969, 1991 और 2017 में भारतीय बैंकिंग प्रणाली में बड़े बदलाव के कारण इसमें कुछ बदलाव देखने को मिलते है।
पूर्व राष्ट्रीयकरण चरण (1947 – 1969)
आजादी मिलने के बाद देश की अर्थव्यवस्था में तेजी से विकास करने के लिए देश में मजबूत बैंकिंग प्रणाली विकसित करने के लिए शासन करने वाली सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती थी। इस दिशा में स्वतंत्रता के बाद, भारतीय बैंकिंग प्रणाली का विकास तब विकास की ओर बढा जब – भारत सरकार (GOI) ने 1948 में अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए बाजारों में व्यापक हस्तक्षेप के साथ मिश्रित अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण को अपनाया। – भारतीय रिजर्व बैंक जिसकी स्थापना वर्ष 1935 में की गई थी उसका वर्ष 1949 में राष्ट्रीयकरण किया गया। – भारतीय रिजर्व बैंक को भारत में स्थापित सभी प्रकार के बैंकों को विनियमित, नियंत्रित और निरीक्षण करने का अधिकार दिया गया। – वर्ष 1949 में बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949 को एक कानून के रूप में पारित किया गया जिसके अंतर्गत भारत में सभी बैंकिंग फर्मों को नियंत्रित करना था। – वर्ष 1955 में “इंपिरियल बैंक ऑफ इंडिया” का राष्ट्रीयकरण किया गया और इसका नाम बदल कर भारतीय स्टेट बैंक कर दिया गया।
– वर्ष 1956 में बैंकिंग कंपनी अधिनियम -1949 जम्मू और कश्मीर में भी लागू कर दिया गया। – वर्ष 1956 में एसबीआई की सात सहायक कंपनियां – स्टेट बैंक ऑफ पटियाला, स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद, स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एंड जयपुर, स्टेट बैंक ऑफ मैसूर, स्टेट बैंक ऑफ त्रावणकोर, स्टेट बैंक ऑफ सौराष्ट्र, स्टेट बैंक ऑफ इंदौर का राष्ट्रीयकरण किया गया। – वर्ष 1965 में बैंकिंग कंपनी अधिनियम -1949 सहकारी बैंकों पर भी लागू कर दिया गया। इससे पहले यह अधिनियम केवल बैंकिंग कंपनियों पर ही लागू था। – 01 मार्च 1966 को बैंकिंग कंपनी अधिनियम -1949 को बैंकिंग विनियमन अधिनियम – 1949 में बदल गया। इस चरण में हम पाते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था के ऊपर की ओर ले जाने में सहायता के लिए भारत में एक मजबूत बैंकिंग प्रणाली विकसित करने के लिए कई आवश्यक निर्णय लिए गए थे।
राष्ट्रीयकरण के बाद का चरण (1969 -1991)
1960 के दशक में भारतीय बैंकिंग उद्योग ने देश के आर्थिक विकास को समर्थन देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी शुरू कर दी थी। फिर भी भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) को छोड़कर सम्पूर्ण बैंक निजी संस्थाओं द्वारा संचालित हो रहे थे। सरकार ने महसूस किया कि भारत की बैंकिंग प्रणाली देश के आम लोगों के लिए स्नेहपूर्ण भूमिका नहीं निभा रही है और बैंकिंग प्रणाली समाज के सभी वर्ग तक पहुंचने में विफल रही है। सरकार ने पाया कि –
- बैंक निजी संस्थाओं द्वारा चलाए जा रहे थे,
- बैंकों में उचित प्रबंधन कौशल का अभाव था,
- बैंकों में मशीनों और प्रौद्योगिकी की कमी थी,
- बैंकों की कार्यप्रणाली समय लेने वाली और लंबी प्रक्रिया वाली थी,
- खाताधारक हो रहे थे ठगी के शिकार,
- कम सुविधाओं के साथ चल रहे थे बैंक,
- बैंक क्लास बैंकिंग ही करना पसंद करते थे।
अब उस समय शासन करने वाली सरकार यह महसूस कर चुकी थी कि भारत की बैंकिंग प्रणाली के दृष्टिकोण को ख़ास बैंकिंग (class banking) से सामान्य बैंकिंग (general banking) में बदले बिना समाज का आर्थिक विकास संभव नहीं था और यह बदलाव तभी संभव था जब बैंकों पर सरकार का सीधा नियंत्रण व स्वामित्व हो। इस दिशा में भारत सरकार ने बैंकिंग कंपनियों (अधिग्रहण और उपक्रमों का हस्तांतरण) अध्यादेश, 1969 (Banking Companies (Acquisition and Transfer of Undertakings) Ordinance, 1969) पारित किया और बैंको पर पूर्ण स्वामित्य स्थापित कर लिया। इस दिशा में सरकार ने उस समय के 14 सबसे बड़े वाणिज्यिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया। जिनके नाम इस प्रकार है –
वर्ष 1969 में, चौदह प्रमुख निजी वाणिज्यिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया, जिनकी जमा राशि 50 करोड़ रुपये से कम नहीं थी और इन बैंकों में देश में बैंक जमा का 85 प्रतिशत शामिल था। वर्ष 1969 में राष्ट्रीयकृत 14 प्रमुख बैंकों की सूची –
01) इलाहाबाद बैंक
02) बैंक ऑफ बड़ौदा
03) बैंक ऑफ इंडिया
04) सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया
05) केनरा बैंक
06) देना बैंक
07) इंडियन बैंक
08) इंडियन ओवरसीज बैंक
09) पंजाब नेशनल बैंक
10) सिंडिकेट बैंक
11) यूको बैंक
12) यूनियन बैंक ऑफ इंडिया
13) यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया
14) बैंक ऑफ महाराष्ट्र
बैंक के राष्ट्रीयकरण की सतत प्रक्रिया में वर्ष 1980 में अन्य छह और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था। इन बैंकों की कुल मांग और सावधि देनदारियां 2,356 करोड़ रुपये से अधिक थी। वर्ष 1980 में छह और वाणिज्यिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण का दूसरा दौर हुआ। राष्ट्रीयकरण का घोषित कारण सरकार को ऋण वितरण पर अधिक नियंत्रण देना था। राष्ट्रीयकरण के दूसरे दौर के साथ, भारत सरकार ने भारत के लगभग 91% बैंकिंग व्यवसाय को नियंत्रित किया। इन बैंकों के नाम इस प्रकार हैं –
01) आंध्र बैंक
02) कॉर्पोरेशन बैंक
03) न्यू बैंक ऑफ इंडिया
04) ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स
05) पंजाब एंड सिंध बैंक
06) विजया बैंक
हम एक अलग ब्लॉग में राष्ट्रीयकरण के कारणों और राष्ट्रीयकरण के गुण और दोषों के बारे में चर्चा करेंगे, इसलिए वेबसाइट से जुड़े रहें।
उदारीकरण का चरण (1991 -2017)
यह वह चरण है जब देश में बैंक पहले ही स्थापित हो चुके थे, अब सवाल नियमित निगरानी का था और भारतीय अर्थव्यवस्था में निरंतर विकास के लिए बैंकिंग क्षेत्र द्वारा प्रदान किए गए मुनाफे को जारी रखने के लिए नियमों का पालन करने की आवश्यकता है। बैंकिंग क्षेत्र के विकास की दिशा में तीसरे चरण ने भारत में बैंकिंग विकास के इतिहास में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इस चरण में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक या राष्ट्रीयकृत बैंक अधिक लाभ कमाने की स्थिति में आ गए थे और देश की अर्थव्यवस्था के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। इस स्तर पर सरकार के लिए कुछ नियम बनाना महत्वपूर्ण था जो राष्ट्रीयकृत सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को निरंतर स्थिरता और लाभप्रदता प्रदान कर सके।
भारत सरकार ने बैंकिंग क्षेत्र में सुधारों की समीक्षा के लिए एक समिति गठित करने का निर्णय लिया जो भारत में बैंकिंग प्रणाली के विकास की बेहतरी के लिए कुछ नए सुधारों का प्रस्ताव कर सके।
उस समय भारत के प्रधान मंत्री श्री मनमोहन सिंह ने भारतीय बैंकिंग प्रणाली की दक्षता और उत्पादकता में सुधार की सिफारिश करने के लिए तथा भारतीय वित्तीय प्रणालियों की संरचना, संगठन, कार्यों और प्रक्रियाओं के सभी पहलुओं की समीक्षा और जांच करने के लिए एक समिति नियुक्त करने का फैसला किया।
इस सिलसिले में भारत सरकार ने मैदावोलु नरसिम्हम की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया था। वह भारतीय बैंकिंग उद्योग में विभिन्न सुधारों का प्रबंधन करने वाले भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के 13वें गवर्नर थे।
सबसे बड़ा विकास भारत में निजी क्षेत्र के बैंकों की शुरूआत थी। RBI ने देश के 10 निजी क्षेत्र के बैंकों को लाइसेंस दिया। इन बैंकों में शामिल हैं –
01) ग्लोबल ट्रस्ट बैंक (Global Trust Bank)
02) आईसीआईसीआई बैंक (ICICI Bank)
03) एचडीएफसी बैंक (HDFC Bank)
04) एक्सिस बैंक (Axis Bank)
05) बैंक ऑफ पंजाब (Bank of Punjab)
06) इंडसइंड बैंक (Indusind Bank)
07) सेंचुरियन बैंक (Centurion Bank)
08) आईडीबीआई बैंक (IDBI Bank)
09) टाइम्स बैंक (Times Bank)
10) डेवलपमेंट क्रेडिट बैंक (Development Credit Bank)
भारत में बैंकिंग प्रणाली के विकास का इतिहास इंगित करता है कि समय और लोगों की जरूरतों के साथ और देश की अर्थव्यवस्था के विकास के लिए बैंकिंग क्षेत्र के तहत प्रमुख विकास को प्रणाली में सुधार करने के उद्देश्य से लाया गया है।
बैंकिंग उद्योग के विकास की पूरी अवधि चल रही है और देश के आर्थिक विकास की बेहतरी के लिए बैंकिंग क्षेत्र में हर दिन नए बदलाव देखे जा सकते हैं।
विशेष रूप से इस चरण में नरशिमन समिति की सिफारिशों के अनुसार बड़े बदलाव किए गए थे और इनमें से कुछ इस प्रकार हैं –
01) समिति की सिफारिशों के अनुसार राष्ट्रीयकृत बैंकों में सुचारू और त्वरित सेवा प्रदान करने के लिए विदेशी बैंकों की शाखाओं को देश में स्थापित करने की अनुमति दी जानी चाहिए।
02) और अधिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने पर रोक लगाने की पेशकश रखी।
03) समिति की सिफारिशों के अनुसार आरबीआई और सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और निजी क्षेत्र के बैंकों दोनों के साथ समान व्यवहार करना चाहिए।
04) किसी भी भारतीय बैंक को किसी भी विदेशी बैंक के साथ संयुक्त उद्यम शुरू करने की अनुमति होनी चाहिए।
05) सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विकास करने की पेशकश रखी। 06) भुगतान बैंकों के विकास की पेशकश रखी।
07) लघु वित्त बैंकों को पूरे भारत में अपनी शाखाएँ स्थापित करने की अनुमति देने की पेशकश रखी।
08) भारतीय बैंकिंग प्रणाली को इंटरनेट बैंकिंग के लिए ऑनलाइन करने की पेशकश रखी।
भारतीय बैंकिंग उद्योग के विकास की पूरी अवधि अभी भी जारी है, और देश के आर्थिक विकास की बेहतरी के लिए बैंकिंग क्षेत्र में हर दिन नए बदलाव देखे जा सकते हैं।
वर्ष 2017 से आज तक का चरण
वर्ष 2017 तक भारतीय बैंकिंग प्रणाली बहुत मजबूत स्थिति में थी और देश की अर्थव्यवस्था को विकसित करने में भी योगदान दिया था लेकिन वर्ष 2019 में वर्तमान सरकार ने देश की बैंकिंग प्रणाली की संरचना की समीक्षा की और पाया कि बैंकों के गैर-निष्पादित आस्तियों (एनपीए) में निरंतर वृद्धि के कारण राष्ट्रीयकृत बैंक की परिचालन लागत अधिक से अधिक होती जा रही है। देश की आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए वित्त मंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमण ने 2019 में 10 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को चार संस्थाओं में विलय करने की घोषणा की है और केंद्रीय मंत्रिमंडल ने भी मार्च 2020 को इस प्रस्ताव को मंजूरी दी थी। विलय 01 अप्रैल 2020 से प्रभावी किया गया। सरकार ने इस विलय के पीछे मूल तर्क दिया कि “भारतीय बैंकों की वैश्विक प्रतिस्पर्धात्मकता में वृद्धि करना है”। अब देश में कुल सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की संख्या 27 से घटकर केवल 12 हो गई है।
हम एक अलग ब्लॉग में बैंक विलय की आवश्यकता और बैंक मर्जर के फायदे और नुकसान पर चर्चा करेंगे, इसलिए ब्लॉग से जुड़े रहें।
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