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भारत में बैंकिंग प्रणाली का इतिहास | History of Indian Banking System
किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के विकास में बैंकिंग उद्योग और वित्तीय संस्थान का एक महत्वपूर्ण स्थान होता हैं और ऐसा कहा जा सकता है कि देश के इन दोनों क्षत्रो का विकास यह दर्शाता है कि इस देश की अर्थव्यवस्था कितनी विकसित है क्योंकि अर्थव्यवस्था के इन दो वर्गों का विकास देश के विकास पर अविश्वसनीय तरीके से प्रभावित करता है।

यदि भारत आज “डिजिटल इंडिया” की स्थिति तक पहुंच पाया है तो उसके पीछे का कारण है भारत की मजबूत बैंकिंग प्रणाली लेकिन भारत की बैंकिंग प्रणाली एक दिन में मजबूत नहीं हो पाई है इसके पीछे एक बड़ा इतिहास शामिल है तो हमें भारतीय बैंकिंग प्रणाली के विकास के विभिन्न चरणों को जानना होगा। इस ब्लॉग में हम भारत की बैंकिंग प्रणाली के विभिन्न चरणों के बारे में चर्चा करने जा रहे हैं। यह ब्लॉग छात्रों, बैंकिंग पेशेवरों या भारतीय बैंकिंग प्रणाली के विकास के चरणों को जानने के इच्छुक लोगों के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण है, इसलिए ब्लॉग से जुड़े रहें।
भारत में बैंकिंग संरचना की उभरती प्रवृत्ति
“डिजिटल इंडिया” के आज के भारत की बैंकिंग और वित्तीय सेवाओं को वहाँ तक पहुँचने के लिए बहुत जटिल और क्रन्तिकारी परिस्थितिओ और नीति निर्देशों से गुजरना पड़ा है जिस कारण भारत में बैंकिंग और वित्तीय सेवाओं का व्यापक विकास हुआ है और इन क्षेत्रों में विकास निरंतर जारी है। इस परिवर्तन को नई नियामक नीतियों और ग्राहकों की अपेक्षाओं और परिस्थितिओ को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। हालाँकि ऐसा भी कहा जा सकता है कि भारत की बैंकिंग और वित्तीय सेवा के विकास के लिए तकनीकी प्रगति ने सबसे अधिक प्रभावित किया है।

यदि हम किसी भी प्रणाली के बारे में जानना चाहते है तो हमे प्रणाली के इतिहास को जानना हमेशा बेहतर होता है। तो आइए जानते हैं भारत में बैंकिंग प्रणाली का इतिहास।
भारत में बैंकिंग का इतिहास
व्यवस्थित और मजबूत बैंकिंग प्रणाली देश की एक मजबूत और विकसित अर्थव्यवस्था बनाने में मदद करती है। यदि हम ऐसा कहें कि बैंकिंग प्रणाली देश के आर्थिक विकास का आधार बनती है, तो यह अतिशोक्ति नहीं होगा। किसी भी देश की बैंकिंग प्रणाली में परिवर्तन उपभोक्ता की हाल की वित्तीय आवश्यकता और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को संतुलित करने पर निर्भर करता है। इस दिशा में पिछले कुछ वर्षों में भारत में बैंकिंग प्रणाली और प्रबंधन में कुछ बड़े बदलाव भी हुए हैं। आइए हम भारत में बैंकिंग प्रणाली के विकास के इतिहास को देखें।
यदि हम भारत में बैंकिंग प्रणाली का इतिहास को टटोलते है तो पाते है की भारत में बैंकिंग प्रणाली का इतिहास बहुत पुराना है। भारत की बैंकिंग प्रणाली 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिलने से पहले की तारीखों को शामिल किया जा सकता है। इस लेख में हम भारत में बैंकिंग क्षेत्र के विकास के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे।
भारतीय बैंकिंग प्रणाली के विभिन्न चरण
भारतीय बैंकिंग प्रणाली के इतिहास को समझने में आसान बनाने के लिए हम मुख्य रूप से भारतीय बैंकिंग क्षेत्र के संपूर्ण विकास को चार चरणों में विभाजित कर सकते हैं
चरण 1 | स्वतंत्रता पूर्व चरण जो शुरू होता है 1770 से 1947 तक । |
चरण 2 | प्रारंभिक चरण जो स्वतंत्रता के बाद 1947 से 1969 तक माना जाता है। |
चरण 3 | बैंकों के राष्ट्रीयकरण का चरण जो 1969 से 1991 तक चला। |
चरण 4 | बैंकिंग क्षेत्र सुधार चरण जिसे उदारीकरण चरण के रूप में भी जाना जाता है, जो 1991 में शुरू हुआ और आज तक फल-फूल रहा है। |
स्वतंत्रता पूर्व अवधि के दौरान भारत में बैंकिंग प्रणाली का विकास
ऐसा नहीं है कि भारत में बैंकिंग प्रणाली का विकास स्वतंत्रता के बाद ही आरंभ हुआ था। इसकी शुरुआत तो ब्रिटिश काल में ही हो गई थी। जिसे स्वतंत्रता पूर्व काल (Pre Independence Period) भी कहा जा सकता है। इस काल को मुख्यतय 1770 से 1947 तक का समय माना जा सकता है।
वर्ष 1770 को स्वतंत्रता-पूर्व काल की शुरुआत क्यों माना जाता है?
ऐसा नहीं है कि भारत में बैंकिंग प्रणाली की शुरुआत वर्ष 1770 मैं ही आरंभ हुआ था। असंगठित क्षेत्र (un-organized sector) के रूप में भारत में बैंकिंग प्रणाली की शुरुआत वर्ष 1770 से भी पहले पाया जाता है, लेकिन कलकत्ता में संगठित क्षेत्र (organized sector) का पहला बैंक जिसे “बैंक ऑफ हिंदुस्तान” (Bank of Hindustan) के नाम से जाना जाता है, जो पहला बैंक बन गया था, जिसे 1770 में भारत में बैंकिंग संरचना के संगठित क्षेत्र के रूप में पंजीकृत किया गया था। इसी लिए स्वतंत्रता पूर्व काल (Pre Independence Period) को वर्ष 1770 से माना जाता है हालाँकि, यह बैंक काम करने में विफल रहा और 1832 में अपना परिचालन बंद कर दिया।
ऐसा नहीं है कि इस अवधि में केवल बैंक ऑफ हिंदुस्तान ही पंजिकृत हुआ बल्कि इस स्वतंत्रता-पूर्व अवधि के दौरान देश में लगभग 600 से अधिक बैंको को पंजीकृत किया गया था, लेकिन उनमें से कुछ ही जीवित रह पाए। जिनमे से कुछ मुख्यतय इस प्रकार है-
क्रम संख्या | बैंकों का नाम | स्थापना का वर्ष | कार्य काल का अंतिम वर्ष |
01 | बैंक ऑफ हिंदुस्तान” (Bank of Hindustan) | 1770 | 1832 |
02 | जनरल बैंक ऑफ इंडिया (General Bank of India) | 1786 | 1791 |
03 | बैंक ऑफ कलकत्ता ( Bank of Calcutta) | 1809 | 1921 |
04 | बैंक ऑफ बॉम्बे ( Bank of Bombay) | 1840 | 1921 |
05 | बैंक ऑफ मद्रास ( Bank of Madras) | 1843 | 1921 |
06 | अवध कमर्शियल बैंक (Oudh Commercial Bank) | 1881 | 1958 |
07 | इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया (Imperial Bank of India) | 1921 | 1955 |
08 | रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (Reserve Bank of India) | 1935 | till date |

प्रेसिडेंशियल बैंक क्या है?
जैसा कि इतिहास गवाह है कि सबसे पहले ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में समुंदरी इलाको के पास के क्षेत्र पर कब्जा किया था क्योंकि वे जहाजों के माध्यम से अपना व्यापार सुचारू रूप से चला सके। ये क्षेत्र थे कलकत्ता, मद्रास और बंबई । उन्होंने इन क्षेत्रों में मजबूत वित्तीय संरचना का निर्माण करने के लिए बैंक भी खोले। उन बैंको को बैंक ऑफ कलकत्ता, बैंक ऑफ बॉम्बे और बैंक ऑफ मद्रास के नाम से जाना जाता था। इन बैंकों को प्रेसिडेंशियल बैंक के रूप में भी जाना जाता था। लेकिन वर्ष 1921 में ब्रिटिश क्राउन द्वारा इन तीनो प्रेसिडेंशियल बैंकों का विलय कर दिया और “इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया” एक केंद्रीय बैंक के रूप में नामित कर दिया गया।
इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया क्या है और क्यों बनाया गया ?
जेसा की हम ऊपर जान चुके है कि “इंपिरियल बैंक ऑफ इंडिया” का निर्माण 1921 में तीन प्रेसिडेंशियल बैंकों के विलय से हुआ था। ब्रिटिश सरकार कि इस विलय के पीछे की मंशा भारत में एक मजबूत केंद्रीय बैंक का निर्माण करने की थी लेकिन इम्पीरियल बैंक में निजी शेयरधारिता के कारण ब्रिटिश सरकार अपनी मंशा में सफल नहीं हो सकी और भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना “हिल्टन रॉयल कमेटी” की सिफारिश के बाद वर्ष 1935 में की गई। इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया को बाद में 1955 में राष्ट्रीयकृत किया गया और इसका नाम स्टेट बैंक ऑफ इंडिया रखा गया, जो वर्तमान में सार्वजनिक क्षेत्र का सबसे बड़ा बैंक है।
हालांकि शुरू में भारतीय रिजर्व बैंक में भी निजी स्वामित्व था, लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वर्ष 1949 में भारतीय रिजर्व बैंक का राष्ट्रीयकरण किया गया था और तब से यह पूरी तरह से वित्त मंत्रालय, भारत सरकार के स्वामित्व में है।
भारतीय व्यवसायियों द्वारा खोले गए बैंक
ऐसा नहीं है कि स्वतंत्रता से पहले केवल अंग्रेजों ने ही बैंक खोले थे। कई भारतीय व्यवसायियों ने भी प्रसिद्ध बैंक खोले थे जो आज भी मौजूद हैं। जो इस प्रकार है –
बैंकों का नाम | स्थापना का वर्ष | स्थापना का स्थान |
इलाहाबाद बैंक | 1865 | इलाहाबाद |
पंजाब नेशनल बैंक | 1894 | लाहौर |
बैंक ऑफ इंडिया | 1906 | मुंबई |
केनरा बैंक | 1906 | मंगलौर |
बैंक ऑफ बड़ौदा | 1908 | वडोदरा |
सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया | 1911 | मुंबई |
सिंडिकेट बैंक | 1925 | उडुपी |
पूर्व स्वतंत्रता युग में बैंकिंग प्रतिष्ठानो के जीवित न रहने के क्या कारण हो सकते हैं ?
इसमें कोई संदेह नहीं है कि पूर्व स्वतंत्रता युग में बहुत सारे बैंक स्थापित हुए थे लेकिन कई बैंकिंग प्रतिष्ठान जीवित रहने में सफल नहीं हो सके। अगर हम उन कारणों की बात करें कि क्यों कई प्रमुख बैंक पूर्व स्वतंत्रता युग में जीवित रहने में विफल रहे।
तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि पूर्व स्वतंत्रता युग में बैंकों के जीवित न रह पाने के निम्नलिखित कारण माने जा सकते हैं। :
01) पूर्व स्वतंत्रता युग में कई खाताधारक अपने को ठगा महसूस कर रहे थे क्योंकि वे धोखाधड़ी के शिकार हो रहे थे।
02) बैंकों में अधिक मानवीय त्रुटियों सामने आ रही थी और समय लेने वाली लंबी मैन्युअल प्रक्रिया भी एक महत्वपूर्ण कारण हो सकता है।
03) पूर्व स्वतंत्रता युग में बैंकों का अधिक से अधिक लाभ कमाने का रवैया भी कारण हो सकता है।
04) पूर्व स्वतंत्रता युग में बैंकों के खाताधारकों को सीमित सुविधाओ की उपलब्धता भी कारण हो सकता है।
05) पूर्व स्वतंत्रता युग में बैंकों के कठोर नियम और विनियम पद्धति भी कारण हो सकता है।
06) पूर्व स्वतंत्रता युग में बैंकों में उचित प्रबंधन कौशल का अभाव भी कारण हो सकता है।
07) पूर्व स्वतंत्रता युग में बैंकों की वित्तीय गतिविधियों पर कोई उचित जाँच की कमी भी कारण हो सकता है।
अगर आपके पास अधिक सुझाव हो तो कृपया कमेंट बॉक्स में कमेंट करें
अधिक जानकारी के लिए पाठक भारत में बैंकिंग संरचना की उभरती प्रवृत्ति ब्लॉग को देख सकते हैं
आजादी के बाद 1947 से आज तक के दौरान भारत में बैंकिंग क्षेत्र में विकास
इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि आजादी के बाद भारत में बैंको व अन्य वित्तीय संस्थानो का चौमुखी विकास हुआ है लेकिन इस विकास यात्रा तो भली प्रकार समझने के लिए हम इस समय काल को निम्नलिकित दो भागो में विभाजित सकते हैं
01 | 1947-1991 तक का काल |
02 | 1991 से आजतक का काल |
1947-1991 तक का काल
जिस समय भारत को स्वतंत्रता मिली, उस समय देश के सभी प्रमुख बैंकों का नेतृत्व निजी तौर पर किया जा रहा था जो तत्कालिन सरकार के लिए चिंता का एक बड़ा कारण था क्योंकि देश के ग्रामीण क्षेत्र अभी भी बैंकिंग व्यवस्थाओ व वित्तीय सहायता से अछूते थे और आजादी के बहुत समय बाद तक देश का ग्रामीण क्षेत्र वित्तीय सहायता के लिए साहूकारों पर निर्भर रहा था। तत्कालिन सरकार ने देश में एक सुनिश्चित, सुसंगठित, निष्पक्ष व प्रभावशाली बैंकिंग प्रणाली बनाने के लिए बहुत से निम्नलिखित कदम उठाए, जो इस प्रकार है
01 | 1949 | बैंकिंग विनियमन अधिनियम Enactment of Banking Regulation Act. |
02 | 1955 | भारतीय स्टेट बैंक का राष्ट्रीयकरण। Nationalisation of State Bank of India. |
06 | 1959 | एसबीआई की सहायक कंपनियों का राष्ट्रीयकरण। Nationalisation of SBI subsidiaries. |
04 | 1961 | जमाराशियों के लिए बीमा कवर बढ़ाया गया। Insurance cover extended to deposits. |
05 | 1969 | 14 प्रमुख बैंकों का राष्ट्रीयकरण। Nationalisation of 14 major banks. |
06 | 1971 | क्रेडिट गारंटी कॉरपोरेशन की स्थापना। Creation of credit guarantee corporation |
07 | 1975 | क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना। Creation of regional rural banks. |
08 | 1980 | 200 करोड़ से अधिक जमा वाले 6 बैंकों का राष्ट्रीयकरण। Nationalisation of 6 banks with deposits over 200 crore. |
09 | 1991 | उदारीकरण Liberalisation |
तत्कालिन सरकार ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में एक सुनिश्चित, सुसंगठित, निष्पक्ष व प्रभावशाली बैंकिंग प्रणाली बनाने के लिए सर्वप्रथम 1949 में भारतीय रिजर्व बैंक का राष्ट्रीयकरण किया । इसके बाद 1955 में तत्कालीन सरकार ने विशेष रूप से ग्रामीण और अर्ध शहरी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर व्यापक बैंकिंग सुविधाएं मोहिया करने के उद्देश्य से इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया का राष्ट्रीयकरण किया और भारतीय स्टेट बैंक का गठन किया। भारतीय स्टेट बैंक को देश में भारतीय रिजर्व बैंक के प्रमुख एजेंट के रूप में कार्य करने और पूरे देश में केंद्र और राज्य सरकारों के बैंकिंग लेनदेन को संभालने के लिए गठित किया गया था।
भारतीय स्टेट बैंक की सात सहायक कंपनियां थीं जिनका 1959 में राष्ट्रीयकरण किया गया था। 01) स्टेट बैंक ऑफ पटियाला, 02) स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद, 03) स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एंड जयपुर, 04) स्टेट बैंक ऑफ मैसूर, 05) स्टेट बैंक ऑफ त्रावणकोर, 06) स्टेट बैंक ऑफ सौराष्ट्र, 07) स्टेट बैंक ऑफ इंदौर, इन सभी सहायक बैंकों का बाद में 2017 में भारतीय स्टेट बैंक में विलय कर दिया गया था।

1969 में बैंकिंग सेवाओ की उपलब्धता को और पूरे देश में केंद्र और राज्य सरकारों के कल्याणकारी योजनाओ की उपलब्धता को आसान बनाने के उद्देश्य से 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने का निर्णय लिया गया था। ये वे बैंक थे जिनकी राष्ट्रीय जमा राशि 50 करोड़ से अधिक थी। इन 14 बैंकों की सूची नीचे दी गई है।
01) इलाहाबाद बैंक,
02) बैंक ऑफ इंडिया,
03) बैंक ऑफ बड़ौदा,
04) बैंक ऑफ महाराष्ट्र,
05) सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया,
06) केनरा बैंक,
07) देना बैंक,
08) इंडियन ओवरसीज बैंक,
09) इंडियन बैंक,
10) पंजाब नेशनल बैंक,
11) सिंडिकेट बैंक,
12) यूनियन बैंक ऑफ इंडिया,
13) यूनाइटेड बैंक,
14) यूको बैंक,
राष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया में अन्य 6 बैंकों का राष्ट्रीयकरण वर्ष 1980 में किया गया । जिससे राष्ट्रीयकृत बैंकों की कुल संख्या बढ़ कर 20 तक पहुंच गई। इस बार बैंकों के राष्ट्रीयकरण का मानदंड उन बैंकों पर आधारित था जिनकी जमा राशि रुपये 200 करोड़ से अधिक थी। इन बैंको की सूचि में निम्नलिखित बैंक शामिल हैं
01) आंध्रा बैंक,
02) कॉर्पोरेशन बैंक,
03) न्यू बैंक ऑफ इंडिया,
04) ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स,
05) पंजाब एंड सिंध बैंक,
06) विजया बैंक,
विस्तार से जाने के लिए पाठक इस लेख को पढ़ सकते हैं भारत में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पीछे क्या कारण था ?
यदी हम अपना निष्कर्ष निकाले तो हमें यह आंकड़े देखने होंगे कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की जमा और अग्रिम राशि में लगभग 11,000% की भारी वृद्धि हुई और साथ साथ उनकी शाखाओं में भी लगभग 800% की भारी वृद्धि हुई और सरकारी स्वामित्व के कारण बैंकों ने जनता में अपार विश्वास प्रदान किया।
1991 से आजतक का काल उदारीकरण का चरण
1991 आते-आते देश में बैंको ने एक संगठित स्वरूप पा लिया था और जब एक बार देश में बैंक भली प्रकार से स्थापित हो जाते है तो बैंकिंग क्षेत्र द्वारा प्रदान किए गए मुनाफे को जारी रखने के लिए नियमित निगरानी और नियमों का पालन करने की आवश्यकता रहती है। देश में बैंकिंग क्षेत्र के विकास का यह मौजूदा चरण जिसे उदारीकरण का चरण कहा जाता है। यह चरण देश में बैंकिंग क्षेत्र के विकास में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
देश में उदारीकरण के इस मौजूदा चरण में बैंकिंग क्षेत्र में सबसे बड़ा विकास भारत में निजी क्षेत्र के बैंकों की शुरूआत थी। आरबीआई ने 10 निजी क्षेत्र के व विदेशी बैंकों को देश में स्थापित करने का लाइसेंस दिया। इस सूचि में ये बैंक शामिल हैं।
01) ग्लोबल ट्रस्ट बैंक
02) आईसीआईसीआई बैंक
03) एचडीएफसी बैंक
04) एक्सिस बैंक
05) बैंक ऑफ पंजाब
06) इंडसइंड बैंक
07) सेंचुरियन बैंक
08) आईडीबीआई बैंक
09) टाइम्स बैंक
10) डेवलपमेंट क्रेडिट बैंक
देश के बैंकिंग क्षेत्र में निजी क्षेत्र के व विदेशी बैंकों के आगमन से देश के मौजूदा राष्ट्रीयकृत सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को स्थिरता और लाभप्रदता प्रदान करने के लिए, सरकार ने श्री एम नरसिम्हम (Shri. M Narasimham) के नेतृत्व में एक समिति गठित करने का निर्णय लिया और श्री एम नरसिम्हम ने अपनी रिपोर्ट में भारतीय बैंकिंग उद्योग में विभिन्न सुधारों का प्रबंधन करने के लिए शिफारिश व्यक्त किया जो इस प्रकार है।
- देश में और अधिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण नहीं किया जाना चाहिए।
- भारत के बैंकिंग क्षेत्र में निजी क्षेत्र के व विभिन्न विदेशी बैंकों की शाखाओं की स्थापना की जानी चाहिए।
- सरकार और आरबीआई का रवैया दोनों क्षेत्र के बैंकों (सार्वजनिक और निजी) के साथ एक समान होना चाहिए।
- कोई भी विदेशी बैंक किसी भी भारतीय बैंकों (सार्वजनिक और निजी) के साथ संयुक्त उद्यम शुरू करने की सवतंत्रता होनी चाहिए।
- भारत के बैंकिंग क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विकास पर जोर दिया है।
- भारत में बैंकिंग सुविधा को और सुगम बनाने के लिए भुगतान बैंकों के विकास पर विचार करने की पेशकश की है।
- सरकार और आरबीआई देश के लघु वित्त बैंकों को पूरे भारत में अपनी शाखाएं स्थापित करने की अनुमति देने का भी पेश किया।
- भारतीय बैंकों (सार्वजनिक और निजी) को इंटरनेट की मदत से खुद को ऐप्स की मध्यम से ऑनलाइन करने का सुझाव दिया।
- भारतीय बैंकों (सार्वजनिक और निजी) को इंटरनेट बैंकिंग, मोबाइल बैंकिंग और फंड ट्रांसफर जेसी सुविधाएं ऑनलाइन उपलब्ध करने का भी सुझाव दिया।
जेसा की ऐसा कहा जाता है कि अवश्यकता ही आविष्कारों की जननी है। इसी प्रकार देश की बदली अर्धिक परेशानियो (जैसे नोटबंदी या करोना काल के दौरे) ने देश में ऑनलाइन बैंकिंग को बदला दिया और लोगो को ऑनलाइन बैंकिंग के लिए जागरुक किया। बिजनेस स्टैंडर्ड (एक प्रमुख समाचार पत्र) के अनुसार देश में ई-कॉमर्स, खरीदारी, यात्रा और आतिथ्य में लगभग 350 मिलियन ऑनलाइन लेनदेन करने वाले उपयोगकर्ता हैं। अधिक जानकारी के लिए बिजनेस स्टैंडर्ड का ब्लॉग पढ़ें।
इस दिशा में कई बैंकों का विलय किया गया है। जानिए बैंकों का विलय का फैसला अच्छा है या नहीं। कृपया जुड़े लेख के माध्यम से जाने भारत में बैंकों का विलय – सकारात्मक है या नकारात्मक ?| Merger of Banks in India – advantages and disadvantages
यदी हम अपना निष्कर्ष निकाले तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे है की देश में उदारीकरण के बाद बैंकों (सार्वजनिक और निजी) का एक नया सवरूप देखने को मिला है जो इस प्रकार से है –
01) देश में विदेशी बैंकों और उनके एटीएम स्टेशनों की बाढ़ आ गई है।
02) सरकारी बैंक ने भी नई तकनीक को बखूबी अपनाया है।
03) ग्राहकों को संतोषजनक सेवा प्रदान करने का प्रयास किया जा रहा है।
04) बैंकों और ग्राहकों द्वारा मोबिल बैंकिंग और नेट बैंकिंग को अच्छी तरह से अपनाया गया है।
05) 24×7 बैंकिंग ग्राहकों द्वारा अच्छी तरह से अपनाया गया है।
06) बैंकों में प्रतिस्पर्धा के कारण समय की कीमत को पैसे से अधिक माना गया है।
07) बैंकिंग की जटिल प्रणाली अधिक सुविधाजनक और तेज हो गई है।
08) भारत की वित्तीय प्रणाली ने बहुत लचीलापन अपना लिया है।
09) तेज और लचीली बैंकिंग प्रणाली के कारण विदेशी भंडार को बढ़ाने में मदद मिली है।
10) देश को किसी भी बाहरी आर्थिक झटके से उत्पन्न किसी भी आर्थिक संकट (जैसा की कई अन्य पूर्वी एशियाई देश पहले से ही पीड़ित हैं) दूर करने में मदद प्रदान कर रहा है।
भारत में बैंकिंग संरचना की उभरती प्रवृत्ति जानने के लिए इस ब्लॉग को पढ़े
हमारी राय में बैंकों के विलय का वर्तमान सरकार का निर्णय अच्छा है लेकिन राष्ट्रीयकृत बैंकों का बैंकिंग उद्योग में उपस्थित होना आवश्यक है क्योंकि यह उद्योग में अधिक से अधिक प्रतिस्पर्धा पैदा करता है साथ ही लोगों को बैंकिंग प्रणाली में अधिक विश्वास बना रहता है। आपको क्या लगता है कमेंट बॉक्स में सुझाव भेजें।