भारत पर COVID-19 महामारी का आर्थिक प्रभाव

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COVID -19 महामारी के परिणामस्वरूप आर्थिक गिरावट ने महत्वपूर्ण कठिनाई पैदा की। संकट के शुरुआती महीनों में लोगों ने अपनी आजीविका का स्रोत खो दिया। इस प्रकार की अपरिहार्य स्थिति विश्व के किसी एक स्थान के लिए कहना ठीक नहीं होगा बल्कि पूरी दुनिया मानवता के इस अप्रत्याशित शत्रु से कांप रही है। इस महामारी ने विश्व अर्थव्यवस्था के साथ-साथ सकल घरेलू उत्पाद को भी नष्ट कर दिया गया है। भारतीय अर्थव्यवस्था भी इस प्रतिकूल स्थिति से प्रभावित हुई है। हम यहां उन सभी कारणों पर चर्चा कर रहे हैं जो महामारी की स्थिति में भारतीय अर्थव्यवस्था के पतन के लिए जिम्मेदार हैं। इसलिए ब्लॉग से जुड़े रहें और जानकारी को फैलाने के लिए अधिक से अधिक शेयर करें।

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कोविड-19 ने पूरी दुनिया के मानव जाति के लिए अदृश्य दुश्मन के रूप में काम किया है। कोविड-19 को विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा एक “महामारी” के रूप में पहचाना गया है। पूरा विश्व इस महामारी से प्रभावित हुआ है। भारत पर भी कोरोनावायरस महामारी का प्रभाव मानव जीवन के साथ-साथ देशों की आर्थिक गतिविधियों के मामलो में नुकसान काफी हद तक विघटनकारी रहा है। हमारे देश भारत की घरेलू मांग और पूर्ति की आपूर्ति के क्षेत्रों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। कोरोनावायरस महामारी के संक्रमण के दौरान भारत देश के कृषि, उद्योग और निर्माण क्षेत्रों में उत्पात लगभग ठप सा हो गया था और साथ-साथ भारत देश की निर्यात प्रणाली में भी तेजी से गिरावट में उच्च वृद्धि देखी गई है। यदि हम भारत की जीडीपी के बारे में बात करें तो हम पाते है कि 2020-21 में भारत की जीडीपी 7.3% घट गई। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय अर्थव्यवस्था का किसी भी वर्ष अभी तक सबसे खराब प्रदर्शन रहा।

यदि हमें किसी भी देश की विकास दर का अध्ययन करना हो तो हमें उस देश की जीडीपी की विकास दर का अध्ययन करना होगा। किसी भी देश की जीडीपी (Gross domestic product (GDP) उस देश की अर्थव्यवस्था के आकार और अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन के बारे में जानकारी देती है। वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की वृद्धि दर को अक्सर अर्थव्यवस्था के सामान्य स्वास्थ्य के संकेतक के रूप में उपयोग किया जाता है। आसान भाषा में, वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद की दर में वृद्धि इस बात के संकेत के रूप में की जाती है कि देश की अर्थव्यवस्था अच्छा कर रही है।
जीडीपी की गणना तीन तरीकों से की जा सकती है, जीडीपी की गणना करने के लिए मुख्यतय तीन घटकों (व्यय, उत्पादन या आय) (expenditures, production, or incomes) के आधार पर किया जा सकता है। सकल घरेलू उत्पाद अर्थव्यवस्था में सभी उत्पादकों द्वारा जोड़े गए सकल मूल्य का योग में से किसी भी उत्पाद कर और उत्पादों के मूल्य में शामिल किसी भी सब्सिडी को घटाया जाता है। जीडीपी की गणना संपत्तियों के मूल्यह्रास या प्राकृतिक संसाधनों की कमी और गिरावट के लिए कटौती किए बिना की जाती है।

भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की गणना दो अलग-अलग तरीकों से की जाती है। पहला कारक लागत (at factor cost) के आधार पर देश की आर्थिक गतिविधि और दूसरा बाजार मूल्य पर व्यय के आधार पर। बाजार मूल्य पर व्यय परआधारित पद्धति यह इंगित करती है कि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्र (व्यापार, निवेश और व्यक्तिगत उपभोग) कैसा प्रदर्शन कर रहे हैं।

विश्व के अनेक देशों के अनुरूप भारत में भी COVID-19 महामारी का आर्थिक प्रभाव काफी हद तक विघटनकारी रहा है। भारत सरकार के सांख्यिकी मंत्रालय ने यह घोषित किया है कि वित्त वर्ष 2020 की चौथी तिमाही में भारत की विकास दर घटकर 3.1% रह गई और साथ ही भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार ने कहा कि भारतीय अर्थव्यवस्था में इस गिरावट का मुख्य रूप से कारण कोरोनावायरस महामारी के प्रभाव है, और विश्व बैंक के अनुसार, वर्तमान महामारी ने “भारत के आर्थिक दृष्टिकोण के लिए पहले से मौजूद जोखिमों को और बढ़ा दिया है”।

भारत में भी COVID-19 महामारी से बुरी तरह प्रभावित हुआ है। जीडीपी में तेज गिरावट देश के इतिहास में सबसे बड़ी गिरावट है। यदि हम भारतीय अर्थव्यवस्था का स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की अवधि से आंकलन करे तो हम पायेंगे की वर्ष 2020 से पहले भारत की अर्थव्यवस्था में चार बार वर्षों (वर्ष 1958, वर्ष1966, वर्ष1973 और वर्ष1980) में गिरावट दर्ज की गई और जिनमे से वर्ष 1980 में आई गिरावट को अबतक की सबसे बड़ी गिरावट माना जाता था क्योंकि वर्ष 1980 में भारतीय अर्थव्यवस्था में 5.2% की गिरावट दर्ज की गई थी लेकिन वर्ष 2020-21 भारतीय अर्थव्यवस्था के इतिहास में आर्थिक संकुचन के मामले में सबसे खराब वर्ष रहा।

इस महामारी के दौरान भारत की जीडीपी में वित्तीय वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही (अप्रैल 2020 से जून 2020 तक) में लगभग 24.4% की भारी गिरावट देखी गई। इस गिरावट के कालचक्र में भारतीय अर्थव्यवस्था के वित्तीय वर्ष 2020-21 की दूसरी तिमाही (जुलाई 2020 से सितंबर 2020 तक) में भारत की जीडीपी में लगभग 7.4% की और भी गिरावट दर्ज की गई लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था के वित्तीय वर्ष 2020-21 की तीसरी तिमाही (अक्टूबर 2020 से दिसंबर 2020 तक) भारत की जीडीपी में लगभग 0.5% का कमजोर सुधार देखने को मिला जो भारतीय अर्थव्यवस्था के वित्तीय वर्ष 2020-21 की चौथी तिमाही (जनवरी 2021 से मार्च 2021 तक) भारत की जीडीपी बढ़ कर 1.6% आँका गया था। इसका मतलब यह निकाला जा सकता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के पूरे वित्तीय वर्ष 2020-21 में भारत की जीडीपी वास्तविक रूप में समग्र दर 7.3% रहा। किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के लिए एक ही वित्तीय वर्ष में यहां की जीडीपी में भारी गिरावट उस देश में उत्पन्न आर्थिक संकट के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार माना जा सकता है।

इस मंदी के सन्दर्भ में विश्व बैंक और विश्व की अन्य रेटिंग एजेंसियों ने भारत के विकास के सन्दर्भ में वित्त वर्ष 2021 के शुरू में कुछ संशोधित आंकड़े जारी किये थे और उन संशोधित आंकड़ों में विश्व बैंक और अन्य रेटिंग एजेंसियों ने भारत के विकास को सबसे कम आंकड़ों के साथ संशोधित किया था और इंगित करते हुए कहा कि भारत के विकास दर में वर्ष 1990 के आर्थिक उदारीकरण निति के बाद तीन दशकों में सबसे कम देखा गया है और यह भी कहा कि मई 2021 माह के मध्य में भारत सरकार द्वारा आर्थिक पैकेज की घोषणा के बाद, भारत के सकल घरेलू उत्पाद के अनुमानों में और भी नकारात्मक असर दिखाई दिया, जो की एक गहरी मंदी का संकेत था। यहां यह कहना भी उल्लेखनीय होगा कि इस अवधि के दौरान विश्व के 30 से अधिक देशों के विकास दर की रेटिंग को विश्व बैंक और अन्य रेटिंग एजेंसियों द्वारा डाउनग्रेड किया गया था।

जहाँ मई 2021 माह में विश्व की रेटिंग एजेंसियों ने घोषणा की कि भारत की यह आर्थिक मंदी भारत की आजादी के बाद शायद भारत की सबसे खराब मंदी मानी जायगी वही भारतीय स्टेट बैंक की आर्थिक शोध अनुभाग ने अनुमान लगाया कि वित्तीय वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही में भारत की सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में 40% से अधिक का संकुचन होगा और यह संकुचन पुरे भारत में एक समान नहीं होगा, बल्कि यह प्रत्येक राज्य और क्षेत्र के विभिन्न मापदंडों के अनुसार अलग-अलग होगा। भारतीय सांख्यिकी मंत्रालय ने भी वित्त वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही के लिए जीडीपी के जारी आंकड़ों में भारत की विकास दर को एक साल पहले की समान अवधि की तुलना में 24% का संकुचन दिखाया।

कारोना महामारी के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था के मुख्य व्यापक आर्थिक संकेतक क्या इशारा करते हैं ?

जैसा कि सर्वविदित है कि कोरोना महामारी के कारण दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं को कड़ी चोट लगी है और यदि भारत की बात करें तो भारत की अर्थव्यवस्थाओं को भी अब तक के सबसे बड़े संकुचन का सामना करना पड़ा है। वित्तीय वर्ष 2020-21 में घोषित महामारी के दौरान दुनिया की सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में 3.3 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई और वहीं उभरते व विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिए यह दर 2.2 प्रतिशत रही। यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि वित्तीय वर्ष 2019-20 में भारत की अर्थव्यवस्था की विकास दर सबसे अधिक थी लेकिन कोविड -19 महामारी के कारण भारत की अर्थव्यवस्था की विकास दर में सबसे अधिक गिरावट भी दर्ज की गई है। इस कथन को आसान बनाने के लिए हम यहां एक तालिका की मदद ले सकते है। इस तालिका का मुख्य स्रोत “अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा प्रकाशित विश्व आर्थिक आउटलुक डेटाबेस अप्रैल 2021” है। इस बहुमूल्य जानकारी के लिए हम उनके आभारी हैं।

विश्व की जीडीपीभारत की जीडीपीअन्य विकासशील देशों की जीडीपी
वर्ष 2019 में स्थिर कीमतों पर जीडीपी में परिवर्तन – (प्रतिशत में)2.8%4.0%3.6%
वर्ष 2020 में स्थिर कीमतों पर जीडीपी में परिवर्तन – (प्रतिशत में)-3.3%-7.3%-2.2%
बेरोजगारी दर वर्ष 2019 (कुल श्रम शक्ति का प्रतिशत)5.4%5.3%5.5%
बेरोजगारी दर वर्ष 2020 (कुल श्रम शक्ति का प्रतिशत)6.5%7.1%6.4%
कोविड-19 के जवाब में स्वास्थ्य क्षेत्र के अतिरिक्त वित्तीय उपाय (जीडीपी का %)1.2%0.4%0.9%
कोविड-19 के जवाब में अतिरिक्त गैर-स्वास्थ्य क्षेत्र के अतिरिक्त वित्तीय उपाय (जीडीपी का %)7.8%3.0%2.8%
स्रोत – अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का विश्व आर्थिक आउटलुक डेटाबेस अप्रैल 2021

ऊपर दी गई तालिका से यह स्पस्ट होता है की कोविद-19 महामारी के दौरान अन्य देशों की तुलना में भारत में बेरोजगारी का प्रदर्शन अपेक्षाकृत खराब रहा और साथ साथ विश्व के अन्य देशों की तुलना में विभिन्न सामाजिक सुरक्षा उपायों के लिए भी अतिरिक्त धन राशि का आवंटन भी अपेक्षाकृत कम रहा है। यद्यपि भारत अतिरिक्त स्वास्थ्य क्षेत्र के वित्तीय उपायों के संदर्भ में विश्व के अन्य देशों के अतिरिक्त स्वास्थ्य क्षेत्र के वित्तीय उपायों के आस पास रहा लेकिन गैर-स्वास्थ्य क्षेत्र के अतिरिक्त उपायों के संदर्भ में विश्व के अन्य देशों की तुलना में आधे से भी कम रहा यह एक चिंता का विषय है लेकिन इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि इस तरह के उपायों के लिए भारत सरकार द्वारा वित्तीय वर्ष 2021-22 के बजट में घोषित आवंटन में एक बार भी मुद्रास्फीति को ध्यान में रखते हुए कोई विशेष वृद्धि नहीं किया।

कोविड -19 ने भारत में आय के स्रोत, उपभोग, गरीबी और बेरोजगारी को कैसे बदला ?

दुनिया के कई अर्थशास्त्री और आर्थिक सर्वेक्षण संस्थानों ने भारतीय आर्थिक विकास में अप्रत्याशित बदलाव महामारी के दौरान और महामारी के बाद के प्रभाव पर अपनी अपनी राय रखी है जो इस प्रकार।

कई अर्थशास्त्रियों का मानना ​​है कि भारतीय अर्थव्यवस्था का अनुमानित विकास आंकड़ा देश में लोगों के बीच असमानता को छुपाता है या धन के वितरण और काम करने के अवसरों की वास्तविक तस्वीर को छुपाता है। भारतीय अर्थशास्त्री और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर, मैत्रेश घटक (Maitreesh Ghatak) ने अपने फोर्ब्स इंडिया. कॉम (Forbesindian.com) में प्रकाशित लेख “असली समस्या असमान अवसरों की है” (The real problem is of unequal opportunities) में कुछ ऐसा लिखते हैं कि भारत में धन संचय और आय के स्रोत के वितरण दोनों में असमानता बढ़ रही है। प्रोफेसर, मैत्रेश घटक ने अपने लेख में अनुमान लगाते हुए कहा हैं कि वर्ष 2020 में भारत की कुल संपत्ति का लगभग 42.50 प्रतिशत भाग भारत की कुल आबादी के केवल एक प्रतिशत लोगों में निहित था जबकि भारत की लगभग 50 प्रतिशत आबादी के पास भारत की कुल संपत्ति का 2.5 प्रतिशत भाग ही सांझा करते है। प्रोफेसर, मैत्रेश घटक ने अपने लेख में यह भी कहा कि महामारी के बाद भारत में गरीबों की संख्या दोगुनी से भी अधिक होने का अनुमान है और साथ साथ मध्यम वर्गी लोगों की संख्या में एक तिहाई की गिरावट आने का भी अनुमान लगाया है।

अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय द्वारा संचालित एक सर्वेक्षण “स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया 2021 और कोविड -19 का एक वर्ष” (State of Working India 2021 One year of Covid-19) के अनुसार – कॅरोना वायरस महामारी के संक्रमण के कालचक्र को रोकने के लिए भारत सरकार द्वारा अप्रैल और मई 2020 के बीच देश के पहले कड़े राष्ट्रीय तालाबंदी के दौरान देश में व्यक्तिगत आय में लगभग 40% की गिरावट आई और सर्वेक्षण में ऐसा भी पाया गया की देश में अधिकाँश परिवारों ने इस देश व्यापी तालाबंदी के शुरुवाती इन तीन महीनो में ही अपना आय का स्रोत्र खो दिया था। सर्वेक्षण में यह भी संकेत दिया गया है कि देश का रोजगार और आय का स्रोत 2020 के अंत में भी महामारी के स्तर तक नहीं पहुंचा था।

अगर हम भारत के सबसे बड़े निजी सर्वेक्षण “सीएमआईई” (CMIE) के माइक्रोडेटा के बारे में बात कर रहे हैं। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) (Centre for Monitoring Indian Economy (CMIE)) एक स्वतंत्र गैर-सरकारी संस्था है। यह कंपनी आर्थिक थिंक-टैंक के साथ-साथ एक व्यावसायिक सूचना कंपनी दोनों के क्षेत्रों में कार्य करती है। सीएमआईई अनुसंधान समूह ने भारतीय अर्थव्यवस्था और निजी कंपनियों पर ‘उपभोक्ता पिरामिड घरेलू सर्वेक्षण’ (सीपीएचएस) (Consumer Pyramids Household Survey’ (CPHS)) पर डेटाबेस बनाया है और यह दर्शाया कि भारत में राष्ट्रीय वादी तालाबंदी के दौरान देश की प्रति व्यक्ति खपत खर्च देश की जीडीपी से अधिक गिर गई थी और कम सामाजिक दूरी की अवधि के दौरान भी यह स्थिति पूर्व-लॉकडाउन स्तरों पर वापस नहीं आ पाई है। सर्वेक्षण में यह भी संकेत दिया गया कि अगस्त 2019 के पहले लॉकडाउन की तुलना में अगस्त 2020 के लॉकडाउन के बाद भी देश की औसत प्रति व्यक्ति खपत खर्च 20% से अधिक कम रहा और वर्ष 2020 के अंत तक देश की औसत प्रति व्यक्ति खपत खर्च साल-दर-साल 15% कम रहा।

इसे तालिका के माध्यम से और आसान और समझने योग्य बनाया जा सकता है। तालिका में उपलब्ध कराए गए डेटा का स्रोत सीएमआईई (CMIE) द्वारा किए गए उपभोक्ता पिरामिड घरेलू सर्वेक्षण (सीपीएचएस) में प्रकाशित डेटा पर आधारित है। निम्नलिखित तालिका में अगस्त 2019 और दिसंबर 2019 का अगस्त 2020 और दिसंबर 2020 में देश के विभिन्न क्षेत्रों में व्यक्तियों के मासिक उपभोग व्यय पर प्रतिशत उतार-चढ़ाव पर तुलनात्मक डेटा दिखाया गया है। तालिका में दर्शाए गए आंकड़े इस और इंगित करती है कि देश में कितने प्रतिशत व्यक्ति हो सकते है जिनका मासिक उपभोग व्यय अलग-अलग कट-ऑफ मूल्यों से कम है। अलग-अलग कट-ऑफ से यहां अर्थ है “आधिकारिक गरीबी रेखा” क्योंकि विभिन्न मामले में कुछ टिप्पणीकारों द्वारा “आधिकारिक गरीबी रेखा सीमा” बहुत कम मानी गई हैं। यहां यह स्पष्ट करना उल्लेखनीय होगा कि वर्तमान में ग्रामीण क्षेत्रों में व्यक्तियों के मासिक उपभोग व्यय के लिए “आधिकारिक गरीबी रेखा सीमा” मात्र 1,600 रुपये प्रति माह या उससे कम है और शहरी क्षेत्रों के लिए यह सीमा रेखा मात्र 2,400 रुपये प्रति माह या उससे कम है।

सम्पूर्ण भारत के विभिन्न क्षेत्रों में मासिक उपभोग व्यय के लिए व्यक्तियों का प्रतिशत

प्रति व्यक्ति मासिक उपभोग व्ययअगस्त 2019दिसंबर 2019अगस्त 2020दिसंबर 2020
1,000 रुपये या उससे कम5.06.010.09.0
1,600 रुपये या उससे कम21.023.533.631.6
2,000 रुपये या उससे कम34.938.350.348.3
2,400 रुपये या उससे कम48.252.164.462.6
स्रोत: उपभोक्ता पिरामिड घरेलू सर्वेक्षण (सीपीएचएस)

ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में मासिक उपभोग व्यय के लिए व्यक्तियों का तुलनात्मक आंकड़ा (प्रतिशत में )

प्रति व्यक्ति मासिक उपभोग व्ययग्रामीण
अगस्त
2019
ग्रामीण
दिसंबर
2019
ग्रामीण
अगस्त
2020
ग्रामीण
दिसंबर
2020
शहरी
अगस्त
2019
शहरी
दिसंबर
2019
शहरी
अगस्त
2020
शहरी
दिसंबर
2020
1,000 रुपये या उससे कम6.47.512.510.92.33.05.55.4
1,600 रुपये या उससे कम25.527.939.537.012.014.522.521.7
2,000 रुपये या उससे कम41.344.457.555.221.925.737.535.7
2,400 रुपये या उससे कम55.559.071.569.733.437.951.349.5
स्रोत: उपभोक्ता पिरामिड घरेलू सर्वेक्षण (सीपीएचएस)

सीपीएचएस सर्वेक्षण के उपरोक्त नवीनतम आंकड़ों के आधार पर यह दर्शाता है कि ग्रामीण या शहरी क्षेत्रों के साथ साथ सम्पूर्ण भारत में लोगों का महामारी के दौरान और बाद में प्रतिशत वर्ष दर वर्ष गरीबी की गहरी स्थिति में समाता जा रहा है। सीपीएचएस के उपरोक्त आंकड़ों से यह पता चलता है कि ग्रामीण गरीबी में 14.2 प्रतिशत अंक और शहरी गरीबी में 18.1 प्रतिशत अंक की वृद्धि हुई है। जबकि देश के अन्य सर्वेक्षणों से संकेत मिलता है कि भारत में कोविड -19 महामारी के दौरान और बाद में हुए गरीबी रेखा में वास्तविक वृद्धि सीपीएचएस के आंकड़ों की तुलना में और अधिक हो सकती है। अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय द्वारा 2021 में किये एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में अनुमानित 230 मिलियन लोग महामारी की पहली लहर के परिणामस्वरूप गरीबी रेखा से नीचे गिर गए हैं।

गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों की संख्या में वृद्धि

जैसा कि उपरोक्त सत्य सर्वेक्षण से पता चलता है कि देश के कई क्षेत्रों में मासिक खपत के आंकड़े में भारी कमी आई है, इसका मतलब है कि गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों का आंकड़ा बढ़ गया है जो नीचे दी गई तालिका के माध्यम से समझा जा सकता है।

अगस्त 2019 से अगस्त 2020 तक के मध्य में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले व्यक्तियों का प्रतिशत। डेटा का स्रोत अगस्त 2019 और अगस्त 2020 के लिए उपभोक्ता पिरामिड घरेलू सर्वेक्षण (CPHS) पर आधारित है।

पंचमक
(quintile)
सम्पूर्ण देश
अगस्त 2019
शहरी आबादी
अगस्त 2019
ग्रामीण आबादी
अगस्त 2019
सम्पूर्ण देश
अगस्त 2020
शहरी आबादी
अगस्त 2020
ग्रामीण आबादी
अगस्त 2020
2327233607358
31400415034
4000252916
Source: Consu0mer Pyramids Household Survey (CPHS) for August 2019 and August 2020.

उपरोक्त तालिका से पता चलता है कि कोविड महामारी के कारण देश में गरीबी की रेखा में प्रवेश करने वाले लोगों का एक नया समूह बनाने में मदद मिली क्योंकि देश में कोविड महामारी की पहली लहर के बाद से ही सीपीएचएस उपभोग वितरण के बीच में घरों के खर्च में बड़ी गिरावट देखी गई। उपरोक्त तालिका के अनुसार पूर्व-कोविड -19 (अगस्त 2019) से महामारी की पहली लहर (अगस्त 2020) के दौरान एक वर्ष के भीतर सम्पूर्ण देश में सबसे कम पंचमक (क्विंटल) में गरीब लोगों का प्रतिशत 32% से बढ़कर 60% हो गया है। इस महामारी का प्रभाव मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में देखने को मिलता है।

देश में कोविड महामारी के परिणामों को जांचने के लिए देश में हुए विभिन्न सर्वेक्षणों के अनुसार महामारी के संक्रमण को रोकने के लिए लगाए गए पहले लॉकडाउन के बाद से ही देश की गरीबी की रेखा में यह तेज वृद्धि संकट की गहराई को उजागर करती है। अप्रैल 2019 से जून 2019 की अवधि में शहरी बेरोजगारी दर 8.8% थी जो अप्रैल 2020 से जून 2020 की अवधि के दौरान बढ़कर 20.8% हो गई थी । यह उपरोक्त तालिका से भी ज्ञात होता है की गरीबी रेखा में अत्यधिक बदलाव शहरी क्षेत्रों के अंकों में चौंका देने वाले बदलाव के कारण हुआ है क्योकि शहरी क्षेत्रों में रहने की लागत ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा में अधिक होता है। महामारी के दौरान शहरी आय अर्जन के स्रोत सीमित होने के कारण अधिक आय वाले लोग भी शहरी गरीबी में शामिल हो गए, जिनकी आय महामारी से पहले अधिक थी।

कोविड -19 महामारी और श्रम शक्ति और बेरोजगारी का संकट

इसमें कोई संदेह नहीं है कि कोविड -19 महामारी पूरे विश्व के लिए एक गंभीर आर्थिक कठिनाई लेकर आई है और साथ साथ विश्व भर में श्रम शक्ति और बेरोजगारी का संकट पैदा कर दिया है। यदि हम भारत की बात करें तो हम पाते है कि भारत की अर्थव्यस्था में युवाओं के कार्यबल की एक बड़ी हिस्सेदारी है लेकिन कोविड -19 महामारी ने युवाओं के कार्यबल और रोजगार के अवसरों को दीर्घकालिक रूप से खतरे में डाल दिया है। एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में इस कोविड -19 महामारी के कारण कुछ क्षेत्रों में तो आजीवन रूप से कमाई और रोजगार की संभावनाओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में सेंटर फॉर इकोनॉमिक परफॉर्मेंस (सीईपी) ने महामारी के कारण भारत में श्रमिकों के बीच निरंतर बेरोजगारी का गहराई से अध्ययन किया और कहा कि भारत में श्रमिकों के बीच निरंतर बेरोजगारी का संकट कम आय वाले राज्यों में अधिक देखने को मिला खासतौर पर झारखंड और बिहार, उत्तर प्रदेश।

लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में सेंटर फॉर इकोनॉमिक परफॉर्मेंस (सीईपी) के इस सर्वेक्षण में कोविड-19 महामारी के संक्रमण को रोकने के लिए पहले दौर के पहले लॉकडाउन के पहले तिमाही में 18 वर्ष से 40 वर्ष के आयु वर्ग के शहरी श्रमिकों का नमूना लिया गया और पाया गया कि उनमें से अधिकांश श्रमिकों के पास महामारी से पहले काम था लेकिन कोविड-19 महामारी के संक्रमण को रोकने के लिए लगाए गए पहले लॉकडाउन के बाद उन श्रमिकों के पास न तो कोई काम था और न ही कोई वेतन। इस सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि पहले लॉकडाउन (अप्रैल से जून 2020) के बाद सर्वेक्षण में शामिल किये गए श्रमिकों में से लगभग 20 प्रतिशत श्रमिकों को अपने वर्तमान काम से हाथ धोना पड़ा और देश में श्रम शक्ति और बेरोजगारी का संकट की ऐसी भयानक तस्वीर सामने आई कि शहरी श्रमिकों की संख्या में लगभग 81 प्रतिशत श्रमिकों के पास न कोई काम था न कोई वेतन, शेष 9 प्रतिशत श्रमिक कार्यरत तो थे लेकिन उनके पास काम करने के घंटे शून्य थे अर्थात कोई वेतन नहीं था। यही कारण था की भारत में अधिक मात्रा में शहरो से पलायन हुआ।

महामारी की पहली लहर के बाद श्रम शक्ति और बेरोजगारी के संकट में सुधार

भारत में महामारी की पहली लहर की भयानक स्थिति को देखते हुए शहरी क्षेत्रों के श्रमिकों में पलायन की आई रुचि का मुख्य कारण शहरों में आजीविका के साधनो का अभाव होना था। शहरों में बसे प्रयाशी श्रमिकों को महामारी की पहली लहर की भयानक स्थिति को देखने के बाद रोजगार में वापस आने की इच्छा बहुत कम हो गई थी लेकिन हालातों से मजबूर श्रमिकों ने वापस लौटने का मन बनाया तभी महामारी ने अपना दूसरा प्रचंड रूप महामारी की दूसरी लहर (फरवरी 2021 के मध्य में शुरू होकर जून 2021 तक) के रूप सामने आ खड़ी हुई और प्रयाशी श्रमिकों ने महामारी की पहली लहर की भयानक स्थिति के मद्देनजर शहरी क्षेत्रों में काम पर लौटने के लिए अनिच्छुक रहे। महामारी की दूसरी लहर ने देश में आर्थिक निष्क्रियता के मंत्रों को बढ़ाकर दीर्घकालिक बेरोजगारी में उपस्थित जोखिमों को बढ़ा दिया है।

भारत की अर्थव्यवस्था पर कोविद -19 महामारी के प्रभाव के बारे में सार्वजनिक स्वास्थ्य संकेतक क्या बताते हैं ?

महामारी की पहली लहर की सम्पूर्ण तालाबंदी का देश की अर्थव्यवस्था की भयानक स्थिति को देखते हुए और देश में बढ़ती हुई आजीविका संकट से बचने के लिए भारत सरकार ने महामारी की दूसरी लहर के दौरान देश में सम्पूर्ण तालाबंदी के बजाय स्थानीय तालाबंदी की ओर रुख किया। हालाँकि महामारी की दूसरी लहर से पहले भारत में महामारी से संक्रमित पुष्टि किए गए मामलों और पुष्ट मौतों के मामले में भारत का सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रदर्शन सबसे अच्छा तो नहीं कहा जा सकता लेकिन फिर भी कई देशों से आगे था। लेकिन महामारी की दूसरी लहर ने भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रदर्शन की कमर ही तोड़ दी। जबकि भारत में महामारी से संक्रमित पुष्टि किए गए मामलों की संख्या कई देशों की तुलना में बहुत अधिक था लेकिन भारत में महामारी से मृत्यु दर देशों की तुलना में काफी कम रही। विश्व के अधिकांश आर्थिक विशेषज्ञों का ऐसा मानना है कि भारत में बड़े पैमाने पर रिपोर्टिंग कम की गई है। फोर्ब्स इंडिया डॉट कॉम में लाज़ारो गामियो और जेम्स ग्लैंज़ (LAZARO GAMIO AND JAMES GLANZ) द्वारा प्रकाशित लेख के अनुसार देश में महामारी से पीड़ितआधिकारिक आँकड़ों के बावजूद कम रिपोर्टिंग बाद ऐसी स्थिति सामने आई यदि भारत के कुल पुष्ट मामले और मौतें के सही आंकड़े सामने आते तो एक बड़े अंतर से बाकी दुनिया से अधिक हो सकती थी।

credit to nytimes.com

इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (IHME) यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन स्कूल ऑफ मेडिसिन द्वारा अपनी वेबसाइट पर 6 मई, 2021 को एक लेख प्रकाशित करते हुए कहा कि वैश्विक स्तर पर COVID-19 से लगभग 6.9 मिलियन लोगों की मौत हुई है, जो आधिकारिक रिपोर्ट से दोगुने से अधिक हो सकती है और इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (IHME) ने अपने लेख में एक तालिका भी प्रकाशित की है जिसमे उन बीस देशों के नाम प्रकाशित किया गया है जिन देशों पर कोविद -19 के कारण होने वाली मौतों को कम रिपोर्ट करने का अंदेशा हो सकता है। दुख की बात ये है की भारत का नाम इस तालिका में दूसरे स्थान पर है। IHME की ​​​​तालिका के अनुसार भारत में कोविद -19 महामारी के कारण होने वाली वास्तविक मृत्यु का आंकड़ा 6,,54,395 है लेकिन आधिकारिक तौर पर मृत्यु का आंकड़ा 2,21,181 ही रिपोर्ट की गई है।
नीचे IHME द्वारा प्रकाशित 20 देशों की सूची के अनुसार शीर्ष 5 देशों के नाम जिन देशों में कोरोनावायरस के कारण हुई वास्तविक मौतों और आधिकारिक तौर पर रिपोर्ट की गई मृत्यु के आंकड़ों में बेमेल होने का अंदेशा है।

देश का नाममार्च 2020-मई 2021 COVID-19 के कारण कुल मौतेंमार्च 2020-मई 2021 कुल आधिकारिक तौर पर
COVID-19 के कारण मौतों की सूचना दी गई
संयुक्त राज्य अमरीका9,05,2895,74,043
भारत6,54,3952,21,181
मेक्सिको6,17,1272,17,694
ब्राज़िल5,95,9034,08,680
रूसी संघ5,93,6101,09,334
आईएचएमई को श्रेय

आईएचएमई ने अपनी रिपोर्ट में संकेत दिया है कि कोविड -19 के कारण होने वाली वास्तविक मौत के आंकड़े में और आधिकारिक तौर पर मौत की रिपोर्ट के आंकड़े में बेमेल के कई कारण हो सकते है। हो सकता है कि देशों द्वारा रिपोर्ट किये गए मौतों के आंकड़े केवल अस्पतालों में या पुष्टि किए गए संक्रमण वाले रोगियों में होने वाली मौतों की रिपोर्ट हों। या हो सकता है कि कई देशों में कमजोर स्वास्थ्य रिपोर्टिंग प्रणाली हो। आईएचएमई ने अपनी रिपोर्ट में संकेत दिया है कि स्वास्थ्य क्षेत्रों में इस प्रकार की उदासीनता भविष्य में इस चुनौती को बढ़ा सकता है।

भारत का अब तक कैसा प्रदर्शन रहा ?

भारत के पहले राष्ट्रीय लॉकडाउन की घोषणा किए लगभग दो साल का समय बीत चुका है। राष्ट्रीय लॉकडाउन के शुरुवाती (मार्च 2020 से फरवरी 2021) साल में देश में जब कोविड -19 महामारी का संकट सामने आया, तब राष्ट्रीय लॉकडाउन ने देश में व्यापार परिक्रिया बंद होने के कारण देश में जीवन और आजीविका के अवसर लगभग बंद से हो गए थे बात हुई थी। अभी देश की अर्थव्यवस्था पहले लॉकडाउन के दुस्परिणामो से उभर भी नहीं पाई थी कि देश को कोविड -19 महामारी की दूसरी लहर (अप्रैल 2021 के बाद) से संघर्ष करना पड़ा और निरंतर संघर्ष कर रहा है। ऐसा कहा जा सकता है कि भारत लॉकडाउन की कठोर प्रतिक्रिया की नीति अपनाने के कुछ पहलुओं के संदर्भ में तो मजबूत दिखाई दी थी लेकिन भारत का प्रशासन देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य और देश के आर्थिक संकट, दोनों पहलुओं से निपटने में अप्रभावी रहा है। इससे यह स्पष्ट होता है कि देश ने दोनों आयामों में खराब प्रदर्शन किया और इसके अलावा ऐसा भी कहा जा सकता है कि देश का प्रशासन देश की आबादी के सबसे कमजोर वर्गों पर आर्थिक, सामाजिक और स्वास्थ्य सम्बंधित संकट के हानिकारक प्रभाव को सीमित करने में विफल रहा।

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